आनंद कौशल/ प्रधान संपादक, देश-प्रदेश मीडिया
एनडीए गठबंधन को सत्ता पर काबिज़ हुए करीब 4 साल से ज्यादा वक्त हो गए और देश के अंदर वोटरों में या यों कहें हिंदू वोटरों में इस बात को लेकर चर्चा तेज़ हो गयी है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने राम का वनवास खत्म करेंगे ? दरअसल उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद से देश के बहुसंख्यक लोगों को ये लगने लगा है कि अयोध्या में श्रीराम का एकांतवास जल्द खत्म हो जाएगा क्योंकि इससे पहले परिस्थितियां इतनी माकूल नहीं थी। ये महज़ संयोग है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है। हालांकि इसमें बड़ा तकनीकी पेंच यही है कि जबतक मामला सुप्रीम कोर्ट में है, लेकिन केंद्र नया क़ानून बनाकर इसकी तकनीकी दिक्कतों को खत्म कर सकती है।रामजन्म भूमि न्यास भी लगातार अयोध्या में रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए आवाज बुलंद करता रहा है। न्यास के अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास का कहना है कि पूर्ण बहुमत की सरकार में कानून बनाकर मंदिर निर्माण होना चाहिए। वहीं इस मामले को लंबे समय से कवर कर रहे पत्रकार और प्रबुद्ध वर्ग भी दोनों पक्षों के बीच समझौते की किसी संभावना से इनकार करता रहा है। इधर, रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का पूरा इतिहास अपनी आंखों के आगे गुजरते देखने वाले 97 वर्षीय हाशिम अंसारी के निधन के बाद कई सवाल जवाब की तलाश में है। हाशिम बाबरी मस्जिद के सबसे पुराने और असल मुद्दई थे।अंसारी ने भी कुछ महीने पहले अचानक बाबरी मस्जिद का मुकदमा न लड़ने और रामलला को आजाद देखने की अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी थी। उन्होंने कहा था कि उनकी लड़ाई सिद्धांतों को लेकर है लेकिन राम से उनकी कोई दुश्मनी नहीं। हाशिम ये भी कह चुके थे कि उनका इस्तेमाल किया जाता रहा है और असल में राजनेता इस मुद्दे को हवा देते रहना चाहते हैं ताकि इसका फायदा उठा सकें। 13 जुलाई 2018 को शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने अदालत में कहा कि अयोध्या में उस जगह मस्जिद नहीं थी वो राम की जन्मस्थली है और वहां राम का मंदिर बनना चाहिए। वसीम रिजवी ने कहा कि वे शांतिपूर्ण तरीके से इस मामले को सुलझाना चाहते हैं।वसीम रिजवी के इस बयान के बाद यह उम्मीद और मजबूत हो चली है कि संभवतः अब वह वक्त आ गया है जब अयोध्या में रामलला का वनवास खत्म होगा। बताया जाता है कि सन 1528 में मुगल शासक बाबर ने इस जगह पर एक मस्जिद का निर्माण कराया जिसे बाबरी मस्जिद नाम दिया गया। हिंदू मान्यता के अनुसार इसी जगह पर भगवान राम का जन्म भी हुआ था। इस घटना के करीब तीन सौ सालों बाद हिंदुओं औऱ मुस्लिमों के बीच पहली बार हिंसा हुई जिसमें हिंदुओं का आरोप था कि भगवान राम के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया है। अंग्रेजी हुकूमत ने हिंसा को देखते हुए तारों की एक बाड़ खड़ी करके विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग पूजा करने की इजाजत दे दी शायद इस विवाद का सूत्रपात यहीं से हुआ। पहली बार 1885 में महंत रघुबर दास ने फैजाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद से लगे एक राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए याचिका दायर की। अयोध्या विवाद में उस वक्त बड़ा मोड़ आया जब 23 दिसंबर 1949 को अचानक से मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर कथित तौर पर भगवान राम की मूर्ति प्रकट हुई। इसके बाद उस स्थान पर हिंदू रोज़ाना पूजा करने लगे और मुसलमानों ने नमाज पढ़ना बंद कर दिया। विवाद बढ़ता देख वहां ताला लगा दिया गया। दुबारा 5 दिसंबर 1950 को महंत परमहंस रामचंद्र दास ने हिंदू प्रार्थनाएं जारी रखने और बाबरी मस्जिद में राममूर्ति को रखने के लिए मुकदमा दायर किया औऱ मस्जिद को ‘ढांचा’ नाम दिया गया। इसी कड़ी में 1959 को निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल हस्तांतरित करने के लिए भी मुकदमा दायर किया। इसके विरोधस्वरूप 18 दिसंबर 1961 को उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर किया। अयोध्या विवाद को हवा तब लगनी शुरू हुई जब 1984 में विश्व हिंदू परिषद यानी वीएचपी ने ने बाबरी मस्जिद का ताला खोलने और राम जन्मस्थान को स्वतंत्र कराने और एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए अभियान शुरू किया।विहिप ने इसी कड़ी में एक समिति का गठन किया। पहली फरवरी 1986 को फैजाबाद के कलेक्टर ने विवादित स्थल पर हिदुओं को पूजा की इजाजत दे दी और ताले दोबारा से खोले गए। इधर, नाराज मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया और यहीं से विवाद की असल बुनियाद मजबूत हुई। हालांकि 9 नवंबर 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दे दी और 1989 में ही विहिप ने राममंदिर निर्माण की नींव रखी। 6 दिसंबर 1992 को बीजेपी, शिवसेना और विश्व हिंदू परिषद के हज़ारों कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का ढांचा ध्वस्त कर दिया और पूरे देश में घटना के फलस्वरूप सांप्रदायिक दंगे हुए। साल 2002 में अटल बिहारी सरकार ने अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए अयोध्या समिति का गठन किया। इसी साल फरवरी में अयोध्या से लौट रहे कारसेवक पर गोधरा में रेलगाड़ी में हमला कर दिया गया जिसमें 58 कार्यकर्ता मारे गए। तेरह मार्च को ही सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखने का फैसला दिया जिसके बाद 2003 में दुबारा केंद्र की पूजा पाठ की अपील को ठुकरा दिया गया। सबसे रोचक बात ये रही कि साल 2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर एएसआई को विवादित स्थल पर खुदाई के दौरान श्रीराम मंदिर से जुड़े कई अवशेष मिले। हालांकि 2003 में सीबीआई ने अयोध्या में ढांचा गिराए जाने के मामले में आडवाणी समेत आठ लोगों के खिलाफ़ पूरक आरोप पत्र दाखिल किए। 30 जून 2009 को बाबरी विध्वंस मामले में लिब्रहान आयोग ने 17 सालों बाद अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी जिसे संसद के दोनों सदनों में 24 नवंबर को पेश किया गया जिसमें आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी औऱ मीडिया को दोषी ठहरा दिया जबकि तत्कालीन सरकार को क्लीन चिट दे दिया गया। इधर, 2010 में अयोध्या विवाद पर सुनवाई पूरी करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला सुनाया औऱ सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इसपर स्टे लगा दिया। अयोध्या विवाद में फायदा किसको मिल रहा है और इसकी आड़ में राजनीति कब तक की जाएगी पता नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि राम के नाम पर वोट मांगने वाली भाजपा अब इस मुद्दे पर दो कदम आगे पैर बढ़ाने जा रही है। उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक जीत के बाद योगी आदित्यनाथ भी राममंदिर की वकालत कर चुके हैं और आरएसएस औऱ विहिप इस मुद्दे पर अब आर-पार की लड़ाई की तैयारी कर रही है। इधर, राजनीति के दिग्गज मानते हैं कि भाजपा का मिशन 2019 राममंदिर निर्माण से अछूता नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदुत्ववादी छवि रामभक्तों को दिलासा दे रही है कि उऩके राम का वनवास शायद कुछ महीनों बाद खत्म हो लेकिन तकनीकी तौर पर अभी इस मामले थोड़ी देरी है। सुप्रीम कोर्ट में अगर रोज़ाना इस मसले पर सुनवाई भी हो तो भी इसका नतीजा तुरंत नहीं आने वाला लिहाज़ा भाजपा नेता ये मान रहे हैं कि इसका फैसला क़ानून बनाकर ही किया जा सकता है। वैसे भाजपा की कई सहयोगी पार्टियों का भी इसमें भरपूर साथ मिल सकता है। खासकर शिवसेना तो इस मुद्दे पर मोदी का मुरीद बन जाएगा लेकिन मोदी के इस फैसले का सबसे बड़ा विरोध बिहार के मुखिया नीतीश कुमार कर सकते हैं क्योंकि वो अयोध्या मसले पर पहले ही भाजपा की नीतियों की मुख़ालफ़त कर चुके हैं। अब देखने वाली बात ये होगी कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री, केंद्र में अपनी सरकार और क़ानून बनाने के लिए जरूरी संख्या बल क्या रामलला को उनका आशियाना दिला सकेंगे या फिर अपनी मजबूरी की ठींकरा फोड़कर भाजपा इस मामले से कन्नी काट लेगी। बहरहाल, अयोध्या में रामलला का वनवास कब खत्म होगा इसकी ठीक ठीक भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता लेकिन इतना जरूर है कि अभी नहीं तो कभी नहीं जैसे हालात में आ चुकी भाजपा को 2019 के चुनाव से पहले हिंदुओं के इसी बड़े सवाल से गुजरना पड़ेगा और अपने फैसले से सबको हैरान करने वाले मोदी रामलला को उनका आशियाना देने की कोई घोषणा कर देते हैं तो आने वाले कई चुनावों में विपक्ष नाम की कोई चीज़ भी नहीं रह जाएगी। लेकिन रामलला को आशियाना देने से पहले ये भी जरूरी है कि दूसरे पक्ष को विश्वास में लिया जाए और उनको रजामंद किया जाए ताकि गंगा जमुनी तहज़ीब को भी किसी तरह की आंच ना आने पाये।