वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह की कलम से
हाल के दिनों में भारत सरकार में बैठे लोगों, सत्ताधारी पार्टी के रणनीतिकारों और समाज के एक खास रुझान वाले वर्ग के तर्कों को देख कर लगता है कि वैचारिक प्रतिबद्धता बुद्धि को कुंद कर देती है या फिर व्यक्ति अपने “विजयी भाव” का मुजाहरे के लिए सोच के स्तर पर आपराधिक जड़ता का शिकार हो जाता है। सत्य पता करने का सबसे प्रामाणिक तरीका है उसी के तर्क-वाक्यों के आधार पर निष्कर्ष निकलना। क्या यह सत्य नहीं है कि जहां अमेरिका और यूरोप के देश विगत नवम्बर में टीका-निर्माता कंपनियों को अपनी आबादी के तीन गुना टीके खरीदने का आर्डर दे चुके थे वहीँ भारत सरकार ने पहला आर्डर जनवरी में कोवीशील्ड बनाने वाले सीरम इंस्टिट्यूट को, और वह भी मात्र 1.1 करोड़ टीके का दिया था और कोवैक्सिन के निर्माता भारत बायोटेक को 55 लाख टीके का दिया था। और इन कंपनियों को यह भी नहीं आश्वस्त किया कि अगला आर्डर कब और कितना होगा?
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क्या यह सच नहीं है कि 28 जनवरी को देवोस विश्व आर्थिक सम्मलेन में दुनिया के नेताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री इतने आत्ममुग्ध थे कि उन्होंने व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग करते हुए कहा “…. और बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने क्या-क्या कहा था? भविष्यवाणी की गयी थी कि पूरी दुनिया में कोरोना से सबसे प्रभावित देश भारत होगा। कहा गया कि भारत में कोरोना संक्रमण की सुनामी आयेगी। किसी ने 700 -800 मिलियन भारतीयों को कोरोना होने की बात कही तो किसी ने दो मिलियन लोगों की मृत्यु का अंदेशा जताया। लेकिन हमने कोविड-स्पेसिफिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर जोर लगाया, ह्यूमन रिसोर्सेज को कोरोना से लड़ने के लिए ट्रेन किया। कोरोना के खिलाफ लड़ाई को एक जनांदोलन में बदल दिया। आज भारत दुनिया के उन देशों में है जो अपनी नागरिकों का ज्यादा से ज्यादा जीवन बचाने में सफल रहा है। जिस देश में विश्व की 18 प्रतिशत आबादी रहती हो उसने कोरोना पर प्रभावी नियंत्रण करके पूरी दुनिया को, मानवता को बड़ी त्रासदी से बचाया है। यह भारत हीं है जिसने पूरी दुनिया का सबसे बड़ा कोरोना वैक्सिनेशन प्रोग्राम भी शुरू किया है। अगले कुछ महीनों में हम अपने 30 करोड़ लोगों को टीका लगा चुके होगें। भारत की ट्रेडिशनल मेडिसिन कैसे इम्युनिटी बढाने में सहायक है हमने दुनिया को इस बारे में गाइड भी किया”? प्रधानमंत्री के इस दावे का (कु) प्रभाव यह रहा कि अगले तीन हफ्ते में देश के स्वास्थ्य मंत्री ने रामदेव के साथ खड़े हो कर इस बाबा-व्यापारी द्वारा बनाई गयी एक तथाकथित आयुर्वेदिक दवा कोरोनील को लांच कर दिया। सत्ता के प्रश्रय की दूसरा दुष्प्रभाव यह रहा इसके ढाई माह बाद एक विज्ञान का “वि” भी न जानने वाला गेरुँधारी पूरी एलोपैथिक सिस्टम को चुनौती देता है।
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प्रधानमंत्री के भाषण हर वाक्य जड़ता-निष्ठ आत्म-मुग्धता का मुजाहरा करता है। क्या उन्हें मालूम नहीं था कि दूसरी लहर भारत में धमाकेदार दस्तक दे चुकी है? क्या उन्होंने मालूम नहीं था कि 30 करोड़ बुजुर्गों को “कुछ माह में” टीका लगवाने के लिए 60 करोड़ टीकों का आर्डर देना होगा। हकीकत यह थी कि अगले दो माह बाद याने मार्च में जो आर्डर दिया गया वह भी मात्र 11 करोड़ का। इन कंपनियों को कोई आर्थिक मदद नहीं दी गयी और जब संकट बढ़ा तो केवल 1500 करोड़ रुपये दिया जो आर्डर के लिए एडवांस के रूप में थे और जिनसे कंपनियां क्षमता विकास नहीं कर सकती थीं। आज देश टीके की किल्लत से कराह रहा है। लेकिन इस सरकार और पार्टी के लोग ऐसा कहने वालों में देशद्रोही ढूंढ रहे हैं।
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कोरोना की दूसरी लहर के आंकलन में गलती हुई, यह एक सर्वव्यापी, स्वयंसिद्ध और सर्वविदित सत्य है जिसे देश हीं नहीं दुनिया की सभी मकबूल संस्थाएं अपने-अपने अध्ययनों के जरिये कह रही हैं। ये सब वर्तमान सरकार की दुश्मन नहीं है या ये वैचारिक वैषम्य के कारण ऐसा नहीं कह रही हैं। अगर दुनिया के एक दर्जन वैज्ञानिक के निष्कर्षों को आगे बढाते हुए न्यूयॉर्क टाइम्स कहता है कि भारत में कोरोना मौतों के आंकड़ें सरकारी आंकड़ों से दो से 16 गुना ज्यादा हो सकते हैं तो ये देशद्रोही भाव नहीं रखते।
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एक हीं दिन में सरकार के तीन (कु)तर्क सुनें। इसका कहना है कि देश में प्रजातंत्र का सैकड़ों साल का इतिहास है और ट्विटर का बयान भारत की दुनिया में छवि बिगाड़ने की साजिश है”। समझ में नहीं आता कि अगर सरकार कानून बना कर अभिव्यक्ति की आजादी की बात कहाँ से आयी और देश की दुनिया में छवि कैसे प्रभावित होती है? छवि तो सरकार की प्रभावित हो रही है। और सरकार और भारत एक हीं नहीं है। फिर देश का प्राचीन प्रजातंत्र वर्तमान सरकार के रहमोकरम पर नहीं रहा है। दूसरा बयान देखें : न्यूयॉर्क टाइम्स ने 12 विख्यात वैज्ञानिकों के अध्ययन के आधार पर कहा कि भारत में मरने वालों की असली संख्या कई गुना ज्यादा हो सकती है। सरकार का इसे आधारहीन और मनगढ़ंत बताते हुए दावा है कि मौतों का सशक्त ट्रैकिंग सिस्टम रखा गया है जिसमें आंकड़ा नहीं छिप सकता। केंद्र गुजरात में रिकॉर्ड में दर्ज होने से वंचित कई गुना मौतें भूल गयी। तीसरा बयान देखें. “वैक्सीन की कमी के लिए राज्यों की सरकारें जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्हीं के लगातार कहने पर केंद्र ने टीकाकरण को विकेन्द्रित किया”। कोई पूछे कि “क्या ये राज्य हीं टीका-उत्पादन का अवरोध बने थे”? क्या यह सच नहीं है कि टीका उत्पादन बढाने के लिए केंद्र ने समय रहते दोनों कंपनियों को आर्डर और तदनुसार वित्तीय मदद नहीं दी? राज्यों तो केवल इतनी मांग थी कि किस आयु वर्ग को कब टीका लगे यह वे स्वयं तय करें। लेकिन केंद्र ने १८ अप्रैल को सभी व्यस्क को 1 मई से टीका की घोषणा कर दी और उधर हाथ खींच कर सारा जिम्मा राज्यों पर डाल दिया। पिछले नवम्बर में इसरायली जासूसी सॉफ्टवेर के इस्तेमाल को लेकर सरकार संसद में कटघरे में रही। इसी दौरान सरकार फेसबुक पर दबाव डालती रही कि वह अपने सभी एन्क्रिप्टेड प्लेटफॉर्म्स में घुसने की तरीका शेयर करे। अब दबाव है कि मूल कंटेंट भेजने वाले का नाम सरकार को बताये। क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के दर्जनों फैसले भूल गयी जिनमें अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का मतलब अभिव्यक्ति का लोगों तक पहुँचना भी था। क्यों सरकार का अपनी निंदा पर जीरो टोलेरेंस का भाव लगातार बढ़ता जा रहा है?
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ज़रा सोचें, जब स्वयं सरकार मानती हो कि कोरोना की तीसरी लहर आसन्न है, जब गलत नीति के कारण इस महामारी से बचाने वाला टीका यथेष्ट समय में उपलब्ध न हो, और जब जनता असहाय हो कर अपने सगे-सम्बन्धियों को असमय काल के मुंह में समाते देख रही हो, उस समय सरकार के मुखिया की इमेज बिल्डिंग के प्रयास लोगों में और गुस्सा पैदा करते हैं। यह गुस्सा तब बढ़ जाता है जब सरकार अपने मूल काम से ज्यादा इस बात की चिंता करती है कि कौन सी विपक्षी पार्टी टूल-किट (?) के जरिये इमेज खराब कर रही है और कैसे सोशल मीडिया और ट्वीटर और फेसबुक पर शिकंजा कसा जाये। सत्तावर्ग मानता है कि नेतृत्व ने तो अद्भुद काम किया जिसकी वजह से महामारी पर काबू हुआ लेकिन साजिशन छवि खराब की गयी। प्रकारांतर से इसका यह भी मतलब हुआ कि लोगों का संकट असली नहीं “पैदा किया” है। सत्तापक्ष के रणनीतिकारों का इससे बड़ा मानसिक दिवालियापन कुछ और नहीं हो सकता। सामान्य हालत में इमेज बिल्डिंग एक मान्य मार्केटिंग स्ट्रेटेजी हो सकती है लेकिन जिस बूढ़े बाप का जवान बेटा या जिन कुंवारी बेटियों का अधेड़ पिता काल-कवलित हुआ हो, उनके पुश्त-दर-पुश्त के दिल से यह फांस रहेगी कि अगर बेड, ऑक्सीजन, समय पर सही उपचार और वैक्सीन मिल गया होता तो जीवन इस रसातल में न जाता। इसी सन्दर्भ में खबरें आयीं कि यूपी के भावी चुनाव के मद्दे नज़र राज्य सरकार की इमेज भी बेहतर करने की रणनीति भी एक ताज़ा बैठक में बनी। क्या उस राज्य में जिसमें बहती लाशें पूरी दुनिया में देश के बेचारगी की कहानी बयाँ कर रही हों, क्या यह सही अवसर था किसी सत्ताधारी दल की ऐसी कोशिशों के लिए? दुष्यंत कुमार ने शायद इन्हीं दिनों और स्थितियों के लिए कहा था : “मत कहो आकाश में कोहरा घना है,