
अन्ततोगत्वा ‘विस्फी (बिसफी) भ्रमण हो ही गया। वही ’विस्फी’ गाँव, जहाँ आज से 671 वर्ष पूर्व ‘अभिनव जयदेव’, ‘मैथिल-कोकिल’ आदि अभिधानों से अलंकृत ‘विद्यापति’ का आविर्भाव हुआ था। कहते हैं, बाद चलकर उनके बाल-सखा और आश्रयदाता राजा शिव सिंह ने न केवल यह गाँव उन्हें दानस्वरूप दे दिया था, बल्कि ‘अभिनव जयदेव’ की उपाधि से विभूषित भी किया।1979 में मैं कुछ महीनों के लिए आर. के. काॅलेज, मधुबनी में पदस्थापित था। जिज्ञासा करने पर पता चला कि ‘विस्फी’ (बिसफी) मुख्यालय से मात्र 45-50 मिनट की ड्राइव पर है। कोई 28-30 किलोमीटर की दूरी। लगभग इतनी ही दूरी दरभंगा मुख्यालय से भी।

इधर मैं दरभंगा-मधुबनी की यात्रा पर था – कुछ निजी और कुछ अकादमिक प्रयोजनों से। इसबार पक्का निश्चय कर लिया था कि ‘विस्फी’ देखकर ही लौटूँगा। 1 मार्च की सुबह लगभग 8 बजे होटल श्यामा रिजेन्सी (बेलामोड़, दरभंगा) से अपनी कार में विदा हुआ। साथ में गुरु कुमार आनन्द थे, जिनकी पी-एच.डी.- मौखिकी अगले दिन होनी थी। दिल्ली मोड़, दरभंगा हवाई अड्डा होते हुए जीरो माइल पहुँचा। 18 किलोमीटर की दूरी तय हो गयी थी। वहाँ से बाईं ओर जाने वाली पक्की सड़क ‘विस्फी’ जाती थी। फलवाले ने बताया कि दूरी 10 किलोमीटर से अधिक नहीं है। कलाई-घड़ी में 9 पर छोटी सुई पहुँचती, इसके पहले ही मेरी गाड़ी विद्यापति-जन्मस्थली पर बने विद्यापति स्मारक-भवन के बाहरी फाटक के सामने खड़ी हो गयी। फाटक पर ताला देखकर पहले तो थोड़ा निराश हुआ, फिर एक लड़के ने कहीं से चाबी लाकर खोल दिया। हमलोग अन्दर दाखिल हुए। लगभग डेढ़-दो एकड़ में अवस्थित भूखण्ड पर बड़ा-सा हाॅल खड़ा मिला। स्थानीय लागों की सहमति और सहयोग से बिहार सरकार ने उसका निर्माण कराया है। हाॅल में प्रवेश करने पर एक पक्का डायस मिला। उसके पीछे दीवार से लटका विद्यापति का चित्र। नीचे बाईं ओर पुस्तक-लेखन में तन्मय विद्यापति की मूर्ति, उनसे सटकर भंग पीसते एक व्यक्ति की प्रस्तर-मूर्ति, हाॅल के एक कोने में पड़ा स्पीकर-डेस्क, दीवारों पर चार-पाँच तस्वीरें, कई खाली आलमारियाँ और हाॅल में बिखरा हुआ कूड़ा-कचरा। गाइड का काम कर रहे नवम कक्षा के उस परीक्षार्थी किशोर ने बताया कि दो दिन पहले यहाँ किसी फिल्म की शूटिंग हुई थी। हाॅल के पीछे पक्का शौचालय दिखाई पड़ा, बोरिंग और प्लास्टिक की दो टंकियाँ भी। कैम्पस में आठ-नौ सोलर लाइट, मगर सब बेकार। हाॅल के सामने एक तरफ पक्के चबूतरे पर विद्यापति की आवक्ष प्रस्तर-प्रतिमा तो दूसरी तरफ एक कोने में गड़े चापाकल पर कपड़े धोती पास की एक बुजुर्ग महिला। परिसर में दोनों ओर कुछ पौधे। पास दो-तीन छोटे बच्चे। हमें देखने चले आये थे।
परिसर से हमलोग निकले ही थे कि एक युवक ने लपककर प्रणाम किया। पूछने पर अपना नाम प्रमोद कुशवाहा बताया। ग्रेजुएशन के बाद वर्ग आठ तक के बच्चों के लिए पास ही में कोचिंग चलाता है। पत्नी आर. के. काॅलेज, मधुबनी से एम.एड्. कर रही है। उसने जल्दी-जल्दी ये सारी सूचनाएँ दीं। तभी एक युवक आया। उसने अपना नाम कोई पासवान बताया। अब ये दोनों हमें पास के एक पोखर तक ले गये। उन्होंने बताया कि इसी में स्नान करने के उपरान्त विद्यापति शिव का पूजन-अर्चन करते थे। पासवान जी ने यह भी बताया कि निवास से पोखर तक आने-जाने के लिए सुरंगनुमा मार्ग था। कहा जाता है कि इस पोखर की खुदाई के क्रम में ही शिव जी प्रकट हुए थे। बाद में ‘उगना’ रूप में सेवकाई भी की थी। रहस्योद्घाटन होने पर वे अन्तर्धान हो गये और 3 किलोमीटर दूरी पर अवस्थित भैरवा गाँव जाकर स्थापित गये। जाकर देखा तो सचमुच एक विशाल और भव्य शिवमंदिर खड़ा था, जिसमें कुछ काम चल रहे थे। 28 पंचायतों वाले ‘विस्फी’ महागाँव की यह एक छोटी पंचायत है। इसमें हिन्दू-मुस्लिम-दोनों कौमें प्रेमपूर्वक साथ-साथ रहती हैं।
भैरवा से लौटकर हमलोगों ने विद्यापति से जुड़े दो और स्थल देखे – पहला, बिहार सरकार द्वारा अधिगृहीत वह विद्यालय, जहाँ कभी विद्यापति की पाठशाला/चटशाला हुआ करती थी। प्रमोद कुशवाहा ने बताया कि यहीं विद्यापति पढ़ा करते थे। दूसरा, भगवती-स्थान। मुख्य मार्ग पर ही डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित भगवती-स्थान के बारे में किशोरीलाल यादव नामक बुजुर्ग ग्रामीण ने सूचना दी कि विद्यापति यहाँ नित्य दिन भगवती का पूजन किया करते थे। ‘जय-जय भैरवि असुर-भयाउनि, ‘कनक-भूधर-शिखर-वासिनि’, ‘विदिता देवी विदिता हो’ जैसे- गीत भगवती के चरणों में ही तो समर्पित हैं। गाँव के कुछ लोगों का कहना है कि भगवती-मंदिर में स्थापित डोली पर बैठी नारी-मूर्ति कोई और नहीं, स्वयं विद्यापति की पुत्री ‘दुल्लहि’ है, जो वहीं अन्तर्धान हो गयी थी। मिथिला की पंजी से ज्ञात होता है कि विद्यापति की दो शादियाँ हुई थीं। पहली पत्नी से ‘नरपति ठाकुर’ और ‘हरपति ठाकुर’ नामक दो पुत्र हुए, जबकि दूसरी पत्नी से वाचस्पति ठाकुर नामक एक पुत्र और ‘दुल्लहि’ नाम की एक पुत्री। मृत्यु-काल में रचित एक गीत में मैथिल-कोकिल ने इसी पुत्री का नामोल्लेख किया है। आज की तिथि में मधुबनी जिलान्तर्गत इस गाँव में, विद्यापति का कोई वंशज नहीं रहता। सारे लोग ‘सौराठ’ जाकर बस गये हैं। ग्रामीणों ने बताया कि सरकार से कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलती है। स्थानीय लोग ही जैसे-तैसे इसकी देखभाल करते हैं।
लगभग 10ः30 बजे मैं आर.के. काॅलेज मधुबनी के लिए विदा हो गया- ‘कत सुखसार पाओल तुअ तीरे। छाड़इत निकट नयन बह नीरे।’’
– बहादुर मिश्र