अतिथि संपादक डॉ जी. पी. सिंह ‘आनंद’ की कलम से
भारत एक भावना प्रधान देश है जहाँ परदा, परिधान और परहेज़ को बहुत ही सम्मान एवं ऊँचाई के साथ देखा जाता है, लेकिन प्रकृति, परिवार, परिवेश, गुरू, ग्रंथ और अवस्थाजन्य अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान से संवेदनात्मक ज्ञान एवं ज्ञानात्मक संवेदना, विचारणा और परिवार के स्तर से प्राप्त होनेवाले संस्कार को आत्मसात करने के अभाव में कुछ व्यक्ति स्थापित लोक-मान्यताओं, मनबंध को ताक़त देनेवाली परंपराओं तथा प्राचीन दार्शनिकों के चिंतन एवं दर्शन को नज़रअंदाज़ कर बौद्धिक भटकाव का शिकार हो रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों द्वारा परिवार और समाज के कुछ कमज़ोर और नकारात्मक पक्ष के साथ खड़े होकर उसके सुंदर और सकारात्मक पक्ष को धराशायी करना अच्छी बात नहीं है। परिवार इस दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे मज़बूत संस्था है। यह बचेगा तो समाज भी बचेगा, राज्य और राष्ट्र भी बचेगा तथा वसुधैव कुटुंबकम का सपना भी साकार होगा।
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जीव, जगत, प्रकृति और माया के रहस्य को समझने तथा प्रेम, करुणा, दया, ममता, समर्पण, सद्भाव और सहयोग जैसे नैसर्गिक मानवीय गुणों का व्यावहारिक ज्ञान हमें परिवार के अंदर ही मिलता है जिसे एक-दूसरे के लिए और अधिक प्रगाढ़ करना चाहिए ताकि परिवार जैसी संस्था मज़बूती से अस्तित्व में रहे, क्योंकि परिवार नहीं बचेगा तो कुछ भी नहीं बचेगा। दिल को दुखानेवाले शब्दों का प्रयोग तथा एक-दूसरे को जोड़कर रखनेवाले स्नेह, सम्मान, सद्भाव और भाईचारा जैसे सेतु को ढाहनेवालों और पृथकतावादी नीति रखनेवालों को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि एक-न-एक दिन अकेले आसमान चूमने की चाहत का तिलिस्म टूटेगा और चारों ओर अंधकार, अज्ञानता और सन्नाटा के सिवाय कुछ भी नहीं बचेगा।
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ध्यान रहे कि अपने लिए अवसर तलाशने में किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रतिशोधात्मक रूप से संवाद करना कहीं-न-कहीं पारस्परिक प्रतिबद्धता को खोने जैसा है। हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर शब्दों से खिलवाड़ करने की मानसिकता का परित्याग करना चाहिए तथा आरोप-प्रत्यारोप का खेल छोड़कर एक-दूसरे का दिल और विश्वास जीतने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि जीवन के धवल पक्ष से अनभिज्ञ रहकर उसके श्याम पक्ष को विषय-वस्तु बनाना किसी के लिए हितकर नहीं है। हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम डिजिटल युग में चल रहे हैं जहाँ अधिकतर समय मशीन के साथ व्यतीत करना पड़ रहा है। इसलिए समय निकालें, प्रेमपूर्ण वातावरण बनावें और एक साथ मिल-बैठकर बच्चों से वार्त्तालाप करें ताकि मन का मशीनीकरण होने से उन्हें बचाया जा सके। अतः प्रत्येक माता-पिता का दायित्व है कि वे प्रेरक कथाओं के माध्यम से प्रेम, करुणा, दया आदि मानवोचित गुणों तथा समय-समय पर मैत्री, सद्भाव, सामाजिक समरसता आदि दृष्टांतों से अपनी संतान को उनके उत्तरदायित्वों का बोध कराते रहें। इससे पारिवारिक, पारस्परिक एवं सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ-साथ संबंधों की प्रगाढ़ता बनी रहती है।