वरिष्ठ पत्रकार गुंजन ज्ञानेंद्र सिन्हा की कलम से.
मांडर के पास एक आदिवासी गाँव में हाट लगती थी। उसमें एक नीम हकीम एक पेड़ के नीचे उठउव्वा टेबुल पर अपनी डाक्टरी की दूकान लगा के बैठता था। टेबुल पर तीन अलग रंगों के इंजेक्शन और कुछ गोलियां सजी रहती थीं। सामने बैठे मरीज से तीनो इंजेक्शन दिखा कर पूछता था – ई पाँच रुपया का है, ऊ दस का और ई तो तू ना लेले सखबी, एकर दाम हौ पन्द्रह रुपया। … अब बोल कौन वाला दे दिऔ? बेचारा निरीह आदिवासी कुछ सोचता, और फिर अपने साथ के आदमी से पूछता – का? कौन ठीक रहतौ?
फिर अपनी टेंट टटोलता और अगर आसनसोल या कोलियरी रिटर्न होता तो पूछ लेता, – कौन ठीक रहतौ? हकीम कहता – ई तो सीधा बात हौ. पाँच रुपया, दस रुपया आ पन्द्रह रुपया। जेतना दाम ओइसन काम, अब जल्दी बोल। आदिवासी फिर अपनी टेंट टटोलता, कुछ सोचता और टेंट जो ज़वाब देती, उसी हिसाब से पाँच, दस या पंद्रह की तरफ इशारा कर देता। हकीम इंजेक्शन ठोक देता।
यही हाल पूरे देश में चिकित्सा व्यवस्था या चिकित्सा के नाम पर ठगी का है। एक ही इंजेक्शन प्रिंट प्राइस बारह हज़ार है और वही मुझे सात हजार में वर्षों तक लेना पड़ा, एहसान अलग। फिर मालूम हुआ, वही किसी और कम्पनी का पंद्रह सौ में मिलता है। एक ही दवा अगर आप बीमा स्कीम में हैं तो बारह हज़ार में, डॉक्टर ने फोन कर दिया तो सात हजार में और आपको पता लग गया तो पन्द्रह सौ में। यह क्या जाल है भाई? डाक्टरी है या सब्जी की दूकान? और यह तब है जब मोदी जी ने बहुत सी दवाओं के दाम कम करा दिए हैं। आँखों की कोर्निया में खून आ गया तो एक इंजेक्शन पड़ता है। उसकी कीमत एक जगह साठ हज़ार, दूसरी जगह पचीस हज़ार, लूट सके तो लूट। और इसकी भी कोई गारंटी नहीं कि साथ हज़ार में जो खरीद रहे हैं वह नकली नही होगी। भारत के प्रजातंत्र में लुटेरों को लूटने की आज़ादी है। हालाँकि ऐसी भद्दी भाषा की उम्मीद एक राष्ट्र के प्रधान से नहीं की जाती, लेकिन जब खुद प्रधानमंत्री कहते हैं कि दवा कम्पनियां डाक्टरों को लड़कियां सप्लाई करती हैं, तो सवाल उठता है कि तब श्रीमान आप क्या कर रहे हैं? आपका काम टिप्पणी करना नहीं है, उस के खिलाफ कार्रवाई करना है।